पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/३६

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काव्य में प्राकृतिक दृश्य ३७ पाठक देख सकते हैं कि फुटकर कहने या गाने के लिए ये पद्य कितने सुन्दर हैं। पर एक प्रबन्ध-काव्य के भीतर दृश्य-चित्रण की दृष्टि से यदि इन्हें देखते है तो सन्तोष नहीं होता । अन्य के सम्बन्ध में स्थित किसी भाव के “उद्दीपन-मात्र के लिए जितना वस्तु-विन्यास अपेक्षित था उतना जायसी ने किया, इसमें कोई सन्देह नही । “उद्दीपन'-रूप से दृश्य जो प्रभाव उत्पन्न करता है वह दूसरे के अर्थात् 'आलम्बन के सम्बन्ध से, स्वतन्त्ररूप में नहीं । पर, जैसा कि सिद्ध किया जा चुका है, प्राकृतिक दृश्य मनुष्य के भावो के स्वतन्त्र आलम्वन भी होते हैं। प्राचीन कवियों ने इन्हें पात्र के आलम्बन के रूप में और श्रोता के आलम्बन के रूप में, दोनो रूपों में सन्निविष्ट किया है। ‘कुमारसम्भव' का हिमालय-वर्णन श्रोता या पाठक के आलम्बन के रूप में है। वाल्मीकि-रामायण में लक्ष्मण को हेमन्त के अन्तर्गत पञ्चवटी-दृश्य-वर्णन पात्र और श्रोता दोनो के भाव का आलम्बन है , वर्षा और शरत् का वर्णन पात्र ( राम ) के पक्ष में तो “उद्दीपन' है, किन्तु रूप के सूक्ष्म विश्लेषण के बल से श्रोता के लिए आलम्वन हो गया है । | एक बड़े प्रबन्ध-काव्य में प्राकृतिक दृश्यों का श्रोता के भाव के लम्बन-रूप में वर्णन भी आवश्यक है, और यह स्वरूप उन्हें तभी प्राप्त हो सकता है जब उनका चित्रण ऐसे व्योरे के साथ हो कि उनकी बिम्ब-ग्रहण हो, उनको पूर्ण स्वरूप पाठक या श्रोता की कल्पना में उपस्थित हो जाय । कारण, रति या तल्लीनता उत्पन्न करने के लिए प्रत्यक्ष स्वरूप का परिचय आवश्यक है। सारांश यह कि “उद्दीपन होने के लिए रूप का थोड़ा-थोड़ा प्रकाश क्या, सङ्केत-मात्र यथेष्ट है , पर 'लिम्बन होने के लिए पूर्ण और स्पष्ट स्फुरण होना चाहिए । | गोस्वामी तुलसीदासजी के भक्तिपूर्ण हृदय में भगवान् रामचन्द्र के सम्बन्ध से चित्रकूट के प्रति जो प्रेम-भाव प्रतिष्ठित था उसके