पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/४०

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३३ काव्य में प्राकृतिक दृश्य ग्रीषम की गजब धुकी है धूप धाम-धाम, | गरमी झुकी है जाम-जाम अति तापिनी । भीजे खेस बीजन डुलाए ना सुखात सेद, । | गात ना सुहात, बात दावा सी डरापिनी । ग्वाल कवि कहूँ कोरे कुमन में कुपन तें। लै लै जलधार चार-बार मुख थापिनी । जब पियो तब पियो, अब पियो फेरि प्रव, ' पीवत हु पीवत बुझे न प्यास पापिनी ।। गरमी के मौसम के लिए एक कविजी राय देते हैं--- सीतल गुलाब जल भरि चहवञ्चन में, | डारि कै कमल-दल न्हाइवे को धेसिए । कालिदास अग-अग अगर-अतर-संग, वैसर, उसीर-नीर, घनसार चॅसिए । जेठ में गोबिंदलाल चंदन के चहलन । भरि-भरि गोकुल के महलन बसिए । मेरे कहने का अभिप्राय यह नहीं कि इन कवियों में कहीं प्रकृति को निरीक्षण मिलेगा ही नहीं । मिलेगा, पर थोड़ा, और वह भी बहुत ढूंढने पर कही एकाध जगह । जैसे---- वृष को तर नि तेज सहसौ किरन तपै, | ज्वालनि के जाल बिकराल बरसत है । तचति धरनि, जग झुरत झरनि, सीरी छह को पकरि पंधी, पछी बिरमत है। 'सेनापति' नैक दुपहरी ढरकत होत घमका विषम, जो न पात खरकत है । छ घमका = हवा का गिरना या ठहर जाना ।