पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/४२

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३५. काव्य में प्राकृतिक दृश्य । व्यापारी के पृथक्-पृथक् कथन के साथ उपमा, उत्प्रेक्षा आदि का प्राचुर्य है। दोनों के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं--- नव उज्जल जल धार हार हीरक सी सौहति . बिच-बिच छहरति बूंद मध्य भुक्ता-मनि पोहति । लोल लहर लहि पवन एक पै इक इमि आवत ; जिमि नरगन मन विबिध सनोरथ करत, मिटावत । कहूँ वैधे नवघाट उच्च गिरिवर-सम सौहत , कहुँ छतरी, कहुँ मदी बढी मन मोहत जौहत । धवल धाम चहुँ और फरहत धुजा-पताका ; घहरत घंटा-धुनि बमक्त धौंसा करि साक। । कहुँ सुदरी नहाति, नीर कर जुगल उछारत ; जुग अंबुज मिलि मुक-गुच्छ मनु सुच्छ निकारत । धोवति सुदरि वदक करन अति ही छवि पादत ; वारिधि नाते ससि-कलंक मनु कमल मिटावत ।। तरनि-तनूजा-तट तमाल तरुवर बहु छाए ; कुके कूल सों जल परसन-हित मनहुँ सुहाए । किधौं मुकुर में लखत उझकि सर्व निज-निज सोभा, कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल-लोभा ।। मनु तप वारन तीर को सिमिटि सबै छाए रहत ; कै हरि सेवा-हित नै रहे, निरखि नैन-मन सुख लहत । कहूँ तीर पर अमल कमल सोभित वहु भाँतिन ; फहुँ सैवालन-मध्य कुमुदिनी लगि रहि पॉतिन । मनु हग धारि अनेक जमुन निरस्वति ब्रज-सोभा ; कै उसँगै प्रिय-प्रिया-प्रेम के अनगिन गोभी । के करिके कर वहु पीय को टैरत निज ढिग सोइई , कै पूजन को उपचार लै चलति मिलन मन मोहई।