पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/४३

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चिन्तामणि

चिन्तामणि के पिय-पद-उपमान जानि यहि निज उर धारत ; के मुख करि चहु मूंगन-मिस अस्तुति उच्चारत । के व्रज-तियगन-बदन-कमल की झलकति फाई; के ब्रज इरि पद-पर-हेतु कमला वहु प्राई । देखिए, यमुना के वर्णन में सवालन-मध्य कुमुदिनी' में दो वस्तुओं की सम्बन्ध-योजना थी , पर आगे चलकर जो ‘उत्प्रेक्षा' और ‘सन्देह' की भरमार हुई तो उसमे अलग-अलग कुमुद और कमल ही रह गए, और वे भी अलङ्कारों के बोझ के नीचे दबे हुए । मैं समझता हूँ, अव यह दिखाने के लिए और अधिक प्रयास की आवश्यकता नहीं हैं कि वन, पर्वत, नदी, निर्झर आदि प्राकृतिक दृश्य हमारे राग या रति-भाव के स्वता आलम्बन है, उनमे सहृदयों के लिए सहज आकर्पण वर्तमान हैं। इन दृश्यों के अन्तर्गत जो वस्तुएँ और व्यापार होगे उनमें जीवन के मूल-स्वरूप और मूल-परिस्थिति का याभास पाकर हमारी वृत्तियाँ तल्लीन होती है। जो व्यापार केवल मनुष्य की अधिक समुन्नत बुद्धि के परिणाम होगे, जो उसके आदिम जीवन से बहुत इधर के होगे, उनमें प्राकृतिक या पुरातन व्यापारो की सी तल्लीन करने की शक्ति न होगी । जैसे, ‘सीतल गुलाव-जल भरि चहुवचन में बैठे हुए कविजी की अपेक्षा तलैया के कीचड़ में बैठकर जीभ निकाल-निकाल हॉफते हुए कुत्ते का अधिक प्राकृतिक व्यापार कहा जायगा । इसी प्रकार शिशिर से दुशाला ओई ‘गुल- गुली गिलमे, गलीचा' विछाकर बैठे हुए स्वॉग से धूप में खपरैल पर वैठी बदन चाटती हुई विल्ली में अधिक प्राकृतिक भाव है । पुतलीघर में एंजिन चलाते हुए देशी साहब की अपेक्षा खेत में हल चलाते हुए किसान में अधिक स्वाभाविक आकर्षण है। विश्वास न हो तो भव- भूति और कालिदास से पूछ लीजिए। जव कि प्राकृतिक दृश्य हमारे भावो के आलम्बन है तब इस