पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४०
चिन्तामणि

४० चिन्तामणि अव चित चेत चित्रकृटहि चलु ; भूमि विलोकु राम-पद-ग्रहित, वन बिलकु रघुवर-विहार थत्नु । ऐसे स्थानों के प्रति सम्बन्ध की योजना के कारण हृदय में विशेष रूप से भावों का उदय होता हैं । कोई राम-भक्त जब चित्रकूट पहुँचता है तब वह वहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य पर ही मुग्ध नहीं होता, अपने इष्टदेव की मधुर भावना के योग से एक विशेष प्रकार के अनिर्वच- नीय माधुर्य का भी अनुभव करता है । ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी रास्तों से जब झाड़ियों के कॉटे उसके शरीर में चुभते है तब उसमे सान्निध्य का यह मधुर भाव विना उछे नहीं रह सकता कि ये झाड़ उन्हीं प्राचीन झाड़ी के वंशज है जो राम, लक्ष्मण और सीता के कभी चुभे होगे । इस भाव-योजना के कारण उन झाड़ो को वह और ही दृष्टि से देखने लगता है। यह दृष्टि औरों को नहीं प्राप्त हो सकती । ऐसे संस्कार जीवन में हम बराबर प्राप्त करते जाते है । जो पढ़े- लिखे नहीं है वे भी आल्हा आदि सुनकर कन्नौज, कालिजर, महोबा, नयनागढ़ ( चुनारगढ़ ) इत्यादि के प्रति एक विशेष 'भाव' सञ्चित करते हैं। पढ़े-लिखे लोग अनेक प्रकार के इतिहास, पुराण, जीवन- चरित आदि पढ़कर उनमें वर्णित घटनाओं से सम्बन्ध रखनेवाले स्थानो के दर्शन की उत्कण्ठा प्राप्त करते है । इतिहास-प्रसिद्ध स्थान उनके लिए तीर्थ से हो जाते है । प्राचीन इतिहास पढ़ते समय कल्पना का योग पूरा-पूरा रहता है । जिन छोटे-छोटे व्योरो का वर्णन इतिहास नहीं भी करता उनका आरोप अज्ञात रूप से कल्पना करती चलती है। यदि इस प्रकार का थोड़ा-बहुत चित्रण कल्पना अपनी ओर से न करती चले तो इतिहास आदि पढ़ने में जी ही न लगे । सिकन्दर और पौरव का युद्ध पढ़ते समय पढ़नेवाले के मन में सिक्- न्दर और उसके साथियों को यवन-वेश तथा पौरख के उष्णीष और किरीट-कुण्डल मन में आवेगे । मतलब यह कि परिस्थिति आदि