पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४१
काव्य में प्राकृतिक दृश्य

का कोई चित्र कल्पना में थोड़ा-बहुत अवश्य रहेगा--जो भावुक होंगे उनसे अधिक रहेगा । प्राचीन समय का समाज-चित्र हम ‘मेघदूत', ‘मालविकाग्निमित्र' आदि में ढूंढते है, और उसकी थोड़ी-बहुत झलक पाकर अपने को और अपने हृदय को भूलकर तल्लीन हो जाते है । एक दिन रात को मै सारनाथ से लौटता हुआ काशी की कुञ्ज-गली में जा निकला । प्राचीन काल से पहुँची हुई कल्पना को लिए हुए उस सॅकरी गली में जाकर मै क्या देखता हूँ कि पीतल की सुन्दर दीवटो पर दीपक जल रहे हैं, दूकानो पर केवल धोती पहने और उत्तरीय डाले ( गरमी के दिन थे ) व्यापारी बैठे हुए हैं, दीवारों पर सिन्दूर से कुछ देवतो के नाम लिखे हुए है, पुरानी चाल के चोखूटे द्वार और खिड़कियाँ हैं। मुझे ऐसा भान हुआ कि मै प्राचीन उज्जयिनी की किसी वीथिका में आ निकला हैं। इतने ही में थोड़ी दूर चलकर म्युनिसिपैलिटी की लालटेन दिखाई दी। बस, सारी भावना हवा हो गई । | इतिहास के अध्ययन से, प्राचीन आख्यानो के श्रवण से, भूत- काल का जो दृश्य इस प्रकार कल्पना में बस जाता है वह वर्तमान दृश्यों को खण्डित प्रतीत होने से बचाता है, वह उन्हें दीर्घ काल-क्षेत्र के बीच चले आए हुए अतीत दृश्यो के मेल में दिखाता है, और हमारे ‘भावी' को काल-बद्ध न रखकर अधिक व्यापकत्व प्रदान करता है । हम केवल उन्हीं से राग-द्वेष नही रखते जिनसे हम घिरे हुए हैं, बल्कि उनसे भी जो अब इस संसार में नहीं है, पहले कभी हो चुके हैं। पशुत्व और मनुष्यत्व में यही एक बड़ा भारी भेद है ।। मनुष्य उस कोटि की पहुँची हुई सत्ता है जो उस अल्प क्षण में ही आत्मप्रसार को बद्ध रखकर सन्तुष्ट नहीं हो सकती जिसे वर्तमान कहते है । वह अतीत के दीर्घ पटल को भेद कर अपनी अन्वीक्षण- बुद्धि को ही नहीं, रागात्मिका वृत्ति को भी ले जाती है। हमारे ‘भावो' ।