पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/५

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की प्रवृत्तिवाले पंडित-पुंगवों को कहीं कहीं आलोकहीन प्रतीत हुआ है। है भी तो यह 'संत'-सुमति-तिय की ही सुभग शृंगार ! यद्यपि शुक्लजी की ‘परख' और स्वदेशी-विदेशीपन के संग्रह-त्याग का मूलाधार दर्शानेवाला 'मणिकोश' विपुलांश में प्रस्तुत हो चुका है तथापि पठनार्थी सज्जनों के अधैर्य और प्रकाशक के अस्थैर्य की उपेक्षा करानेवाले दिन अभी एक-दो नहीं कई थे। इसलिए संप्रति इसी रूप में इसे प्रकाशित कर देने की अपेक्षा समझी गई ।

विजयादशमी, २००२ वि० । ब्रह्मनाल, काशी ।

विश्वनाथप्रसाद मिश्र