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चिन्तामणि

१६ चिन्तामणि रसखान तो किसी की ‘लकुटी अरु कामरिया' पर तीनों पुरी का राज-सिहासन तक त्यागने को तैयार थे; पर देश-प्रेम की दुहाई देने- वालों में से कितने अपने किसी थके-मॉडे भाई के फटे-पुराने कपड़ो पर कर—या कम गे कम न खीझकर–विना मन मैला किए कमरे का फर्श भी मेला होने देगे ? मोटें आदभिया ! तुम जरा सा दुन हो जाते-अपने अंदेश से ही सही--तो न जाने कितनी ठटरिया पर मांस चढ़ जाता । पशु और चालक भी जिनके साथ अधिक रहते है उनसे परच जाते हैं। यह परचना परिचय ही हैं। परिचय प्रेम को प्रवर्तक है । विना परिचय के प्रेम नहीं हो सकता। यदि देश-प्रेम के लिए हृदय में जगह करनी है तो देश के स्वरूप से परिचित और अभ्यस्त हो जाइए। बाहर निकलिए तो आँख खोलकर देखिए किं खेत कैसे लह- लहा रहे है, नाले झाड़ियों के बीच कैसे बह रहे है, टेसू के फूलों से वनस्थली कैसी लाल हो रही है, कछारो में चौपायो के झुण्ड इधर- उधर चरते है, चरवाहे लान लड़ा रहे हैं, अमराइयों के बीच गॉव झॉक रहे हैं; उनमे घुसिए, देखिए तो क्या हो रहा है। जो मिले उनसे दो-दो बाते कीजिए, उनके साथ किसी पेड़ की छाया के नीचे घड़ी आध घड़ी चैठ जाइए और समझिए कि ये सब हमारे देश के है। इस प्रकार जब देश का रूप आपकी आँखों में समा जायगा, आप उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग से परिचित हो जायेंगे, तब आपके अन्तः- करण में इस इच्छा को सचमुच उदय होगा कि वह हमसे कभी न छुटे, वह सदा हरा-भरा और फला-फुला रहे, उसके धन-धान्य की वृद्धि हो, उसके सव प्राणी सुखी रहे । पर आजकल इस प्रकार का परिचय बाबुओ की लज्जा का एक विपय हो रहा है। वे देश के स्वरूप से अनजान रहने या बनने में अपनी बड़ी शान समझते हैं। मैं अपने एक लखनवी दोस्त के साथ