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चिन्तामणि

चिन्तामणि अब तक जो कुछ कहा गया उनसे यह बात स्पष्ट हो गई होगी कि काव्य में 'आलम्वन' ही मुग्थ्य है। यदि कवि ने ऐसी वस्तु और व्यापारी को अपने शब्द-चित्र द्वारा सामने उपस्थित कर दिया जिनसे श्रोता या पाठक के भाव जाग्रन होते हैं, तो वह एक प्रकार से अपना काम कर चुका है संसार की प्रत्येक भाषा में इस प्रकार के काव्य वर्तमान है जिनमें भाव को प्रदर्शित करनेवाले पात्र अर्थान् 'ग्राश्रय', की योजना नहीं की गई है केवल ऐसी वस्तुएँ और व्यापार सामने रख दिन गए हैं जिनसे श्रोता यो पाठक ही भाव का अनुभव करते हैं । यदि किसी कवि ने किसी हृदय को पूर्ण चित्रण करके रख दिया, तो क्या वह इसीलिए काव्य न कहलायेगा कि उसके वर्णन के भीतर कोई पात्र उस इश्य से प्राप्त आनन्द या शोक को अपने शब्द और चेष्टा द्वारा प्रगट करनेवाला नहीं है ? कुमारसम्भव के प्रारम्भ के उतने श्लोको को जिनमे हिमालय की वर्णन है, क्या काव्य से खारिज समझे ? मेयदृत में जो अन्नकूट, विन्ध्य, रेवा आदि के वर्णन है उन सबमे क्या यक्ष की विरह-व्यथा ही व्यंग्य हैं ? विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी की गिनती गिनाकर किसी प्रकार ‘रस' की शर्त पूरी करनी ही जव से कविजन अपना परम पुरुपार्थ मानने लगे तब से यह बात कुछ भूल सी चली कि कवियो का मुख्य कार्य ऐसे विपय को सामने रखना है जो श्रोता के विविध भावो के आलम्बन हो सके। सच पूछिए तो काव्य में अङ्कित सारे इश्य श्रोता के भिन्न-भिन्न भावों के आलम्बन-स्वरूप होते है । किसी पात्र को रति, हास, शोक, क्रोध आदि प्रकट करता हुआ दिखाने मे ही रस-परिपाक मानना और यह समझना कि श्रोता को पूरी रसा- नुभूति हो गई, बुरा हुआ । श्रोता या पाठक के भी हृदय होता है । वह जो किसी काव्य को पढ़ता या सुनता है सो केवल दूसरों का