पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/५७

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काव्य में रहस्यवाद { चह नियन्ध कैवल इस उद्देश्य से लिपा गया है कि 'रहस्यवाद' या छायावाद' की कविता के सम्पन्ध में भ्रान्तिच या जान-बूझकर जो अनेक प्रकार की ये सिर-पैर की उति का प्रचार किया जाता है, वह बन्द हो। कोई कहता है “यही वर्तमान युग की कविता है; कोई कहता है “इसमें आजकल की आकांक्षाएँ भरी रहती है और कोई समझता है कि “बस, यही कविता फा रूप है। किसी सभ्य जाति के साहित्य क्षेत्र में ऐसे ऐसे प्रवादों का फैलानी शोभा नहीं देती। मैं रहस्यवाद' का विरोधी नही । मैं इसे भी कविता की एक शावा विशेप मानता हूँ। पर जो इसे काव्य का सामान्य स्वरूप समझते हैं उनके अज्ञान का निवारण मैं बहुत ही आवश्यक समझना हूँ।) कविता क्या है ? शीर्वक निबन्ध में हम कह चुके है कि कविता मनुष्य के हृदय को व्यक्तिगत सम्बन्ध के सङ्कुचित मण्डल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भावभूमि पर ले जाती है, जहाँ जगत् के नाना रूपो और व्यापारी के साथ उसके प्रकृत सम्बन्ध का सौन्दर्य दिखाई पड़ता है। इस सौन्दर्य के अभ्यास से हमारे मनोविकारों की परिष्कार और जगत् के साथ हमारे रागात्मक सम्बन्ध की रक्षा और निर्वाह होता है । जिस प्रकार जगत् अनेकरूपात्मक है उसी प्रकार हमारा हृदय भी अनेक- भावात्मक है। इन अनेक भावो का व्यायाम और परिष्कार तभी हो सकता है जब कि उन सबका प्रकृत सामञ्जस्य जगत् के भिन्न- भिन्न रूपों और व्यापारी के साथ हो जाये । जब तक यह सामञ्जस्य पूरा-पूरा न होगा तब तक ग्रह नहीं कहा जा सकता कि कोई पूरी तरह जी रहा है। उसकी सजीवता की मात्रा अधूरी और प्रसार सङ्कचित

  • [ देखिए चिन्तामणि, पहला भाग, पृष्ठ १६२ । ]