पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/५८

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काव्य में रहस्यवाद ५१ समझा जायगा । अतः काव्य का काम मनुष्य के सब भावो और सब मनोविकारो के लिए प्रकृति के अपार क्षेत्र से आलम्बन या विषय चुन-चुनकर रखना है । इस प्रकार उसका सन्बन्ध जगत् और जीवन की अनेकरूपता के साथ स्वतः सिद्ध है । | काव्य-दृष्टि से जब हम जगत् को देखते हैं तभी जीवन का स्वरूप और सौन्दर्य प्रत्यक्ष होता है। जहाँ व्यक्ति के भावो के पृथक् विषय नहीं रह जाते , मनुष्य-मात्र के आलम्बनो में हृदय लीन हो जाता। है , जहाँ व्यक्ति-जीवन का लोक-जीवन में लय हो जाता है, वहीं भाव की पवित्र भूमि है। वहीं विश्व-हृदय का आभास मिलता है। जहाँ जगत् के साथ हृदय को पूर्ण सामञ्जस्य घटित हो जाता है वहाँ प्रवृत्ति और निवृत्ति भी स्वतः मङ्गलोन्मुखी हो जाती है। जो नरक के, परजन्म के अथवा राजदण्ड के भय से ही पाप या अपराध नहीं करते , तथा जो स्वर्ग के या परजन्म के सुख के लोभ से ही कोई शुभ कार्य करते हैं, उनमें हृदय के विकास का अभाव और जीवन के । सौन्दर्य की अनुभूति की कमी समझनी चाहिए। जीवन का सौन्दर्य वैचित्र्य-पूर्ण है। उसके भीतर किसी एक ही भाव का विधान नहीं है। उसमें एक और प्रेम, हास, उत्साह और आश्चर्य आदि हैं, दूसरी ओर क्रोध, शोक, घृणा और भय आदि–एक ओर आलिङ्गन, मधुरालाप, रक्षा, सुख-शान्ति आदि हैं , दूसरी ओर रार्जन, तर्जन, तिरस्कार और ध्वंस । इन दो पक्षों के बिना क्रियात्मक या गत्यात्मक (Dynamic) सौन्दर्य का प्रकाशनहीं हो सकता है। जहाँ इन दोनों पक्षो में साध्य-साधक-सम्बन्ध रहता है, जहाँ इनमे सामञ्जस्य दिखाई पड़ता है, वहाँ की उग्रता और प्रचण्डता मे भी सोन्दर्य का दर्शन होता है । कहने की आवश्यकता नहीं कि यह सौन्दर्य भी मङ्गले का ही पर्याय है। जो लोग केवल शान्त और निष्क्रिय ( Static ) सौन्दर्य के अलौकिक स्वप्न में ही