पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/६०

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५३ काव्य में रहस्यवाद है सब सामान्य भूमि से ऊपर उठे हुए होते हैं । पर यह कहना कि उपर्युक्त आदर्श के भीतर ही सौन्दर्य और मङ्गले की अभिव्यक्ति होती है, काव्य की उच्चता केवल वहीं मिलती है, मङ्गल-सौन्दर्य तथा काव्य की उच्चता के क्षेत्र को बहुत सङ्कचित करना है । कोई क्रूर अत्या- चारी किसी दीन को निरन्तर पीड़ा पहुँचाता चला जाता है और वह पीड़ित व्यक्ति बराबर प्रेम प्रदर्शित करता और उस अत्याचारी का उपकार साधता चला जाता है ; यहाँ तक कि अन्त में उस अत्याचारी की वृत्ति कोमल हो जाती है, वह पश्चात्ताप करता है और सुधर जाता है। यह एक ऊँचा आदर्श है, इसमै सन्देह नहीं । पर इस | आदर्श में केवल दो पक्ष हैं---अत्याचारी और पीड़ित । उस क्रूरता और पीड़ा को देखनेवाले तीसरे व्यक्ति की मनोवृत्ति का मङ्गलमय सौन्दर्य कहाँ है, इसका अनुसन्धान नहीं है । विचारने की बात है। कि दूसरो की निरन्तर बढ़ती हुई पीड़ा को देख-देख अत्याचारियो की शुश्रूषा और उनके साथ प्रेम का व्यवहार करते चले जाने में अधिक सौन्दर्य को विकास है, कि करुणा से आई और फिर रोष से प्रज्व- लित होकर पीड़ितो और अत्याचारियों के बीच उत्साहपूर्वक खड़े होने तथा अपने ऊपर अत्याचार-पीड़ा सहने और प्राण देने के लिए तत्पर होने में । हम तो करुणा और क्रोध के इसी सामञ्जस्य मैं मनुष्य के कर्म-सौन्दर्य की पूर्ण अभिव्यक्ति और काव्य की चरम सफलता मानते हैं। मनुष्य की अन्तःप्रकृति के एक पक्ष के सर्वथा अभाव को चरम साध्य रखकर निवृत्ति के आदर्श-स्वप्न में लीन करने में ही काव्य की उच्चता हम नहीं मान सकते। यह स्वप्न सुन्दर अवश्य है, पर जागरण इससे कम सुन्दर नहीं है । स्वप्न और जागरण दोनो काव्य के पक्ष हैं। इन दोनों पक्षो का सामञ्जस्य काव्य का चरम उत्कर्ष है । काव्य में हम वादो' का बाहर से आना ठीक नहीं समझते । पर यदि 'वाद'