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चिन्तामणि

५६ चिन्तामणि पुनीत भावभूमि में जत्र तक मनुष्य रहता है तब तक वह अनन्त काव्य के भावुक श्रोता या दृष्टा के रूप में रहती हैं। कुछ लोगों का यह खयाल कि काव्यानुभूति एक और ही प्रकार की अनुभूति हैं, उसका प्रत्यक्ष या असली अनुभूति से कोई लम्बन्ध ही नहीं, या तो कोई रक्याल ही नहीं, या गलत हो । काव्यानुभूति ( Aesthetic 111otic or stitc) कि निगली ही अनुभूति है इस मत के कारण योरपीय समीक्षा-क्षत्र में बहुत सा अर्थशून्य वाग्विन्नार बहुत दिनों से चला आ रहा है । इस मत की अनारता रिचर्डस (1. : Richards) ने अपने काव्य-समीक्षा-सिद्धान्त' ( 1Princities of Literary Criticism ) में अच्छी तरह दिखाई है। | अपने को भूलकर, अपनी शरीर-यात्रा का मार्ग छोड़कर, जब मनुष्य किसी व्यक्ति या वस्तु के सौन्दर्य पर प्रेम-मुग्ध होता हैं; किसी ऐसे के दुःख पर जिसके साथ अपना कोई रवास सम्बन्ध नही करुणा से व्याकुल होता है ; दूसरे लोगों पर सामान्यतः घोर अत्या- चार करनेवाले पर क्रोध से तिलमिलाता है ; ऐसी वस्तु से घृणा की अनुभव करता है जिससे सबकी रुचि को क्लेश पहुँचता है; ऐसी बात का भय करता है जिससे दूसरों को कष्ट या हानि पहुँचने की सम्भावना होती है ; ऐसे कठिन और भयङ्कर कर्म के प्रति उत्साह से पूर्ण होता है जिसकी सिद्धि सवको वाञ्छित होती है तथा ऐसी बात पर हँसता या आश्चर्य करता है जिसे देख-सुनकर सबको हँसी आती या आश्चर्य होता है तब उसके हृदय को सामान्य भावभूमि पर और उसकी अनुभूति को काव्यानुभूति के भीतर समझना चाहिए । इस लिए यह धारणा कि शब्द, रङ्ग या पत्थर के द्वारा जो अनुभूति उत्पन्न की जाती है केवल वही काव्यानुभूति हो सकती है, ठीक नहीं है। जिस अनुभूति की प्रेरणा से सच्चे कवि रचना करने बैठते है। वह भी काव्यानुभूति ही होती है । सत्यकाव्य और असत्यकाव्य मै--