पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/६६

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५६ काव्य में रहस्यवाद इस अभिव्यक्ति की भी अभिव्यक्ति है। मनुष्य का ज्ञान देश और काल के बीच बहुत परिमित है। वह एक बार में अपने भावो के लिए बहुत कम सामग्री उपस्थित कर सकता है। सदा और सर्वत्र किसी भाव के अनुकूल यह सामग्री उपलब्ध भी नहीं हो सकती। दूसरी बात यह है कि सवकी कल्पना उतनी तत्पर नहीं होती कि जगत् की खुली विभूति से सञ्चित रूपों और व्यापारो की वे जब चाहे तब ऐसी मर्मस्पशिणी योजना मन में कर सके जो भावों को एकबारगी जाग्रत् कर दे । इसी से सूक्ष्म दृष्टि, तीव्र अनुभूति और तत्पर कल्पनावाले कुछ लोग कवि-कर्म अपने हाथ में लेते हैं। प्रत्येक देश में काव्य का प्रादुर्भाव इसी जगत् रूपी अभिव्यक्ति को लेकर हुआ । इस अभिव्यक्ति के सम्मुख मनुष्य कहीं प्रेमलुब्ध हुआ, कही दुखी हुआ, कहीं क्रुद्ध हुआ, कहीं डरा, कहीं विस्मित हुआ और कहीं भक्ति और श्रद्धा से उसने सिर झुकाया । जव सव एक दूसरे को ऐसा ही करते दिखाई पड़े तव सामान्य आलम्वनो की परख हुई और उनके सहारे एक ही साथ बहुत से आदमियों में एक ही प्रकार की अनुभूति जगाने की कला का प्रादुर्भाव हुआ । इसका उपयोग जहाँ दस आदमी इकटे होते-जैसे, यज्ञ में, उत्सव में, युद्ध- यात्रा मे, शोक-समाज मे-वहाँ प्रायः होता था। धीरे-धीरे इसी अनुभूति-योग की साधना से कुछ अन्तर्दृष्टि-सम्पन्न महात्माओं को इस विशाल विश्वविग्रह के भीतर ‘परम हृदय' की झलक मिली जिससे कविता और ऊँची भूमि पर आई । वे चराचर के साथ मनुष्य- हृदय को संयोग कराने, सर्वभूतों के साथ मनुष्य को तादात्म्य का अनुभव कराने, उठे ।। वाल्मीकि मुनि तमसा के हरे-भरे कृल पर फिर रहे थे । नानी वृक्ष और लताएँ प्रफुल्लता से झूम रही थीं। मृग स्वच्छन्द विचर रहे थे , पक्षी आनन्द से कलरव कर रहे थे । प्रकृति के उस महोत्सव में