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चिन्तामणि

चिन्तामणि अव्यक्त में कोई पारमार्थिक भेद नहीं । ये दोनो सापेक्ष और व्याव- हारिक शब्द है और केवल मनुष्य के ज्ञान की परिमिति के द्योतक हैं। अज्ञात की 'जिज्ञासा' ही का कुछ अर्थ होता है; उसकी लालसा या प्रेम का नहीं । भौतिक जगत की पयोजना लेकर जिस प्रेम की व्यञ्जना होगी वह भाव की दृष्टि से वास्तव में भौतिक जगत् की उमी रुपयोजना के प्रति होगा । जगह-जगह जिज्ञासा-याचक शब्द रखकर उसे किसी और के प्रति बतानी या तो प्रिय असल्य या साम्प्र- दायिक रुद्रि ही माना जायगा । पहले कहा जा चुका है कि जिस प्रकार जगत् अनेकरूपात्मक हैं उसी प्रकार काव्य भी अनेक-भावात्मक है । प्रेम, अभिलाप, विरह, त्सुक्य, हर्प आदि थोड़ी सी मनोवृत्तियों का एक छोटा सा घेरा सम्पूर्ण काव्यक्षेत्र नहीं हो सकता । इन भावो के साथ और दूसरे भाव-जैसे, क्रोध, भय, उत्साह, घृणा इत्यादि-ऐसी जटिलना से गुम्फित है कि सम्यक काव्यदृष्टि उनको अलग नहीं छोड़ सकती , चाहे उनको सामञ्जस्य शेप अन्तःप्रवृत्तियों के साथ कभी कभी मुश्किल से ही क्यों न बैठता हो । आज-कल कवि के ‘सन्देश' ( Message ) का फैशन बहुत हो रहा है। हमारे आदिकवि कादि से अभिप्राय प्रथम कवि से है जिसने काव्य के पूर्ण स्वरूप की प्रतिष्ठा की—सन्देश है कि सव - भूतो तक, सम्पूर्ण चराचर तक, अपने हृदय को फैलाकर जगत् मे भावरूप में रम जाओ ; हृदय की स्वाभाविक प्रवृत्ति के द्वारा विश्व के साथ एकता का अनुभव करो । करुण अमर्प की जो वाणी उनके मुख से पहले पहल निकली उसमें यही सन्देश भरा था। समस्त चराचर मे एक सामान्य हृदय की अनुभूति का जैसा तीव्र और पूर्ण उन्मेप करुणा में होता है वैसा किसी और भाव में नही। इसी से आदिकवि की वाणी द्वारा पहले पहल उसी की व्यञ्जना हुई । उस