पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/७०

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काव्य में रहस्यवाद वाणी में काव्य के प्रकृत स्वरूप का भी पूरा संकेत था । मनुष्य की अन्तःप्रकृति के भीतर भावो का परस्पर जैसा जटिल सम्बन्ध है। करुणा और क्रोध का वैसा ही जटिल सम्बन्ध वाणी में था । आलम्बन-भेद से इन दो विरोधी भावों का कैसा सुन्दर सामञ्जस्य उस हृदय से निकले हुए सीधे सादे वाक्य मे था । | अव उनके सन्देश का कुछ और विवरण लीजिए। रामायण में-विशेषतः वप और हेमन्त के वर्णन मे---जिस संश्लिष्ट व्योरे के साथ उन्होने प्रकृति के नाना रूपो का सूक्ष्म निरीक्षण किया है उससे उन रूपो के साथ उनके हृदय का पूरा मेल पाया जाता है । विना अनु- राग के ऐसे सूक्ष्म व्योरो पर दृष्टि न जा ही सकती है, न रस ही सकती है । “काव्य में प्राकृतिक दृश्य' नामक निबन्ध में हमने किसो वर्णन में आई हुई वस्तुओं का मन में दो प्रकार का ग्रहण बताया था—बिम्ब-ग्रहण और अर्थ-ग्रहण मान्न । वर्षा और हेमन्त के वर्णन में वाल्मीकि ने विम्ब-ग्रहण कराने का प्रयत्न किया है। उन्होने वस्तुओं के अलग-अलग नाम नही गिनाए है , उनके आकार, वर्ण आदि को पूरा ब्योरा देते हुए आस-पास की वस्तुओं के साथ उनका संश्लिष्ट दृश्य सामने रखा है। इसी संश्लिष्ट रूपयोजना का नाम चित्रण है। कवि इस प्रकार के चित्रण में तभी प्रवृत्त होता है जब वह बाह्य प्रकृति को आलम्बन-रूप में ग्रहण करता है । उद्दीपन-रूप में जो वस्तु-विधान होता है उसमे कुछ इनी-गिनी वस्तुओं के उल्लेख मात्र से काम चल जाता है । | वन, पर्वत, नदी, नाले, पशु-पक्षी, वृक्ष, लता, मैदान, कछार ये सब हमारे पुराने सहचर हैं और हमारे हृदय के प्रसार के लिए अभी तो बने हुए हैं , आगे की नहीं कह सकते । इनके प्रति युग-युगादि का सञ्चित प्रेम जो मनुष्य की दीर्घवंश-परम्परा के बीच वासना-रूप में निहित चला आ रहा है उसकी अनुभूति के उद्बोधन में ही मनुष्य