पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/७१

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चिन्तामणि

६४ चिन्तामणि की गायिका प्रकृति का पूर्ण परिकार र मनुष्य के कल्याण-मार्ग का अवाध प्रसार दिग्बाई पड़ता है। इन्हें सामने पाकर इनसे यही कहने को जी करता है--- ए ! वन, यजर, कार, दरे-भरे चैन । विटप, विहंग ! सुनो, अपनी सुनावें हम । टूटे तुम, तो भी चाह चित्त में न उटी यइ, | बग्नै नुम्हारे बीच फिर कभी अाचे दम् । अड़े चले जा रहे हैं वे अपने री बीच; । जो कु चा है उसे वचः हो पावे हम ? . शून्न २३ौत हो हमारे चही, ; तुम्हे, । मुलते दर सरने कह जावै हुन ? रूप में तुम्हारे पले होगे जो "दय में है। मगल की यम-निधि पृरी पाल पावेगे । जे के चचर की सुख-सुषमा के माथे, । नुको को हमारे शो कृष्टि की वनावेंगे । से ही इस महंगे हमारे नर-जीवन का । कुछ उपयोग इस लोक में दिखावेंगे। सुमन-विकाम, मृदु अानन के हास, खग- मृग के विलाम वीच भेद को घटायेंगे । नर में नारायण की कला भासमान कर, जीवन को वे ही दिव्य ज्योति सो जगावेंगे। कूप से निकाल हमें छोड़ रुपसगिर में, । भव की विभूतियों में भाव सा रसायेंगे । वैसे तो न जाने कितने ही कुछ काल कला । | अपनी दिखाते अस्त होते चले जावेंगे । जीने के उपाय तो बतायेंगे अनेक ; पर। | जिया किस हेतु जय, वे ही बतलायेंगे ।

  • [ ये कवित्त शुक्लजी कृत "हृदय का मधुर भार' शीर्षक कविता से