पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/७३

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चिन्तामणि

चिन्तामणि देखते हुए उसके जीर्ण या बूढ़े होने की बात लोगों से कहते हैं। जिस कुत्ते ने कभी बहुत से कामो में हमारा साथ दिया था उसकी याद हमें कभी-कभी आया करती है। जो दिल्ली की-कभी जाड़े की धूप में हमारे छत के मुंडेरे पर लेटकर अपना पेट चाटी करती थी उसके बच्चो को हम कुछ प्रेम के साथ पहचानते हैं। जिन झाड़ियो को हम अपने जन्मग्राम के पास के नाले के किनारे देखा करते थे उन्हें किसी दूर देश में पहले पहल देखकर उनकी ओर कम से कम मुड़ जर जाते हैं। पशु भी बदले में प्रेम करते हैं केवल हित-अनहित ही नहीं पहचानते---इसके कहने की आवश्यकता नहीं। राम के वन जाने पर उनके प्यारे घोड़ो का हीसना, कृप्या के मथुरा चले जाने पर गायो का इँकन, कवियों ने भी कहा है । तपोवन से प्रस्थान करते समय शकुन्तला की आँखों में अपने पोसे हुए मृगछौने और सच- सोचकर बढ़ाए हुए पौधों को देखकर भी कुछ ऑसू आए थे। न जाने क्यों हमें मनुष्य जितना और चर-अचर प्राणियों के बीच में अच्छा लगता है उतना अकेले नही । हमारे राम भी हमे मन्दाकिनी या गोदावरी के किनारे बैठे जितने अच्छे लगते हैं उतने अयोध्या की राजसभा में नहीं । अपनी-अपनी रुचि है । अस्तु, यहाँ पर इतना ही कहना है कि भवि-साहित्य में मनुष्येतर चर-अचर प्राणियों को थोड़ा और प्रेम का स्थान मिलना चाहिए। वे हमारी उपेक्षा के पात्र नहीं है। हम ऐसे आख्यान या उपन्यास की प्रतीक्षा में बहुत दिनो से हैं। जिसमें मनुष्यों के वृत्त के साथ मिला हुआ किसी कुत्ते-बिल्ली आदि का भी कुछ वृत्त हो ; घटनाओं के साथ किसी चिरपरिचित पेड़-झाड़ी । आदि का भी कुछ सम्बन्ध दिखाया गया हो। कहीं-कही विलायती काव्य-समीक्षाओं में यह लिखा मिलेगा कि प्रकृति को केवल यथातथ्य चित्रण काव्य तो है, किन्तु प्रारम्भिक दशा का, उन्नत दश या ऊँची श्रेणी का नहीं । इस कथन का अर्थ अगर ।