पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/७४

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काव्य में रहस्यवाद बहुत दूर न घसीटा जाय, अपनी ठीक सीमा के भीतर रखा जाय, तो यही होगा कि प्रकृति के रूपो के चित्रण के अतिरिक्त उनकी व्यञ्जना पर भी ध्यान देना चाहिए। प्रकृति के नाना वस्तु-व्यापार कुछ भावो, तथ्यों और अन्तर्दशाओ की व्यञ्जना भी करते ही है । यह व्यञ्जना ऐसी अगूढ़ तो नहीं होती कि सब पर समान रूप से भासित हो जाय, किन्तु ऐसी अवश्य होती है कि निदर्शन करने पर रदय या भावुक मान्न उसका अनुमोदन करें। यदि हम खिली कुमु- दिनी को हँसती हुई कहे, मञ्जरियो से लदे आम को माता और फूले अङ्गो न समाता समझे, वर्षा का पहला जल पाकर साफ-सुथरे और हरे पेड़-पौधो को तृप्त और प्रसन्न बताएँ, कड़कड़ाती धूप से तपते ‘किसी बड़े मैदान के अकेले ऊँचे पेड़ को धूप में चलते प्राणियो को विश्राम के लिए बुलाता हुआ कहें, पृथ्वी को पालती-पोसती हुई स्नेह- मयी माता पुकारे, नदी की बहती धारी को जीवन का सञ्चार सूचित करें, गिरि-शिखर से स्पष्ट झुकी हुई मेघमाला के दृश्य में पृथ्वी और आकाश का उमङ्ग-भरा, शीतल, सरस और छायावृत आलिङ्गन देखे, तो प्रकृति की अभिव्यक्ति की सीमा के भीतर ही रहेगे। | इसी प्रकार अभिव्यक्ति की प्रकृत प्रतीति के भीतर, प्रकृति की सच्ची व्यञ्जना के आधार पर, जो भाव, तथ्य या उपदेश निकाले जायेंगे वे भी सच्चे काव्य होगे । उदाहरण के लिए अँगरेज कवि वड्सवर्थ की “एक शिक्षा ( A Lesson ) नाम की कविता लीजिए । इसमें एक फूल का वर्णन है जो बहुत ठंढ, मेह या ओले पड़ने पर सङ्कचित होकर अपने दल समेट लेता है । कवि ने एक बार इस फूल को इस युक्ति से अपनी रक्षा करते देखा था । फिर कुछ दिनो पीछे देखा तब वह जीर्ण हो गया था, उसमें दल समेटने की शक्ति नही रह गई थी। वह मेह और ओले सह रहा था। उसका वर्णन कवि ने इस प्रकार किया---