पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/७५

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चिन्तामणि

६८ चिन्तामणि I stopped and said with 11nly muttered voice. It doth not love the shower, nor seck the coid, This neither 1s its courage nor its choice, But its necessity 11 being oid. मैं रुक गया और मन ही मन कहने लगा—यह न तो इस झड़ी को चाहता है, न इस ठंढ ही को । न तो यह इसका साहस ही है, न रुचि । यह जरावस्था की अवशता है। प्रकृति की ऐसी ही सच्ची व्यञ्जनाओं को लेकर अन्योक्तियो का विधान होता है, जो इतनी मर्मस्पर्शणी होती हैं । साहित्य-मीमांसको के अनुसार अन्योक्ति में प्रस्तुत वस्तु व्यंग्य होती है अर्थात् जो प्राकृ- तिक दृश्य सामने रखे जाते है उनसे किसी दूसरी वस्तु की, विशेषतः मनुष्य-जीवन-सम्बन्धी किसी मर्मस्पर्शी तथ्य की, व्यञ्जना की जाती है । अन्योक्तियो में ध्यान देने की बात यह है कि व्यंग्य तथ्य पूर्णतया ज्ञात होता है और हृदय को स्पर्श कर चुका रहता है ; इससे प्रकृति के दृश्यों को लेकर जो व्यञ्जनी की जाती है वह बहुत ही स्वाभाविक और प्रभावपूर्ण होती है । संस्कृत की जितनी अन्योक्तियाँ मिलती है। सब इसी ढंग की होती है। उनके आधार पर बावा दीनदयाल गिरि ने अपने अन्योक्तिकल्पद्रुम' में बड़ी सुन्दर अन्योक्तियों कही है। पर दो एक ऐसी अन्योक्तियाँ भी उस पुस्तक में मिलेगी जिनमे परोक्ष, अव्यक्त या अज्ञात तथ्य की व्यञ्जना का अनुकरण किया गया है, जैसे- चल चकई ! वा सर-विषय जहँ नहिं रैनि विछोह । रहत एकरस दिवस ही सुहृद हंस-संदोह । सुहृद हंस-संदोह को अरु द्रोह न जाके ।। भोगत सुख-अंवोह, मोह सुख होय न ताके । वरनै दीनदयाल भाग्य विनु जाय न सकई । पिय-मिलाप नित रहै ताहि सर तू चल चकई ॥