६६ काव्य में रहस्यवाद अज्ञात या परोक्ष तथ्य की व्यञ्जनी की यह हवा कबीर आदि निर्गुण-पंथी सन्त की बानी की है, जिसका एकआध झोंका व्यक्ति- गत एकान्त उपासना में लीन रहनेवाले सूरदासजी को भी लगा था । गोस्वामी तुलसीदासजी इससे बचे रहे । अन्योक्ति द्वारा अव्यक्त, परोक्ष या अज्ञात तथ्य की व्यञ्जना को हम कृत्रिम और काव्यगत सत्य ( Poetic truth ) के विरुद्ध समझते हैं । जिस तथ्य का हमें ज्ञान नहीं, जिसकी अनुभूति से वास्तव में कभी हमारे हृदय में स्पन्दन नहीं हुआ, उसकी व्यञ्जना का आडम्बर रचकर दूसरों का समय नष्ट करने का हमे कोई अधिकार नहीं । जो कोई यह कहे कि अज्ञात और अव्यक्त की अनुभूति से हम मतवाले हो रहे हैं, उसे काव्यक्षेत्र से निकलकर मतवालो ( साम्प्रदायिको ) के बीच अपना हाव-भाव और नृत्य दिखाना चाहिए। वहीं ऐसी अनुभूति पर विश्वास करनेवाले मिलेगे । खैर, इस बात को अभी हम यहीं छोड़ते हैं और प्रस्तुत प्रसङ्ग पर आते हैं। | प्रकृति की सच्ची अभिव्यञ्जना द्वारा गृहीत तथ्यों को रमणीय वर्णन भी काव्य का एक बहुत आवश्यक अङ्ग है, यह ऊपर कहा जा चुका । अब हमें यह कहना है कि वैसा ही आवश्यक अङ्ग प्रकृति के दृश्यों का यथातथ्य संश्लिष्ट चित्रण भी है। दोनों अलग-अलग अङ्ग हैं । दोनों का विधान भिन्न-भिन्न दृष्टियों से होता है । प्रकृति के केवल यथातथ्य संश्लिट चित्रण में कवि प्रकृति के सौन्दर्य के प्रति सीधे अपना अनु- राग प्रकट करता है । प्रकृति के किसी खण्ड के ब्योरों में वृत्ति रमाना | इसी अनुराग की बात है। प्रकृति की व्यञ्जना द्वारा गृहीत तथ्यों, उपदेशों आदि में कवि की दृष्टि मनुष्य-जीवन पर रहती है । इस भेद को अच्छी तरह ध्यान में रखना चाहिए। दोनों विधानो का महत्त्व बराबर है। इनमें से किसी एक को उच्च और दूसरे को मध्यम कहना एक अखि बंद करना है । यही एकाङ्गदर्शिता योरपीय समीक्षकों का बड़ा भारी