पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/८०

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काव्य में रहस्यवाद की स्थूलता या गोचरता हटाकर उसे सूक्ष्म भावना ( Abstract ) के रूप में रखते हैं । ये दोनों विधान उच्चकोटि की कविता में, जिसमे सूक्ष्म विचारों का गूढ़ अन्तर्यास रहता है, बहुत ही प्रभाववर्द्धक होते हैं । पर इनको दुरुपयोग भी बहुत होता है। इधर 'अभिव्यञ्जना- वाद के प्रभाव से मूर्त विधान की बहुत मिट्टी खराब हुई । इस "अभिव्यञ्जना-वाद” ( Expressionism ) का आगे उल्लेख किया जायगा । पहले हम कह आए हैं कि सच्ची कविता किसी 'वाद' को लेकर नहीं चलती, जगत् की अभिव्यक्ति को लेकर ही चलती है। वादग्रस्त काव्य अधिकतर काव्याभास ही होता है। उसमें प्रकृति के नाना रूप और व्यापार किसी वाद या सम्प्रदाय के घेरे में निरूपित बातो को मूर्त रूप में स्पष्ट करने या काव्य की भावात्मक शैली पर मनोरञ्जक बनाने के लिए, साधन-रूप में ही व्यवहृत होते हैं। वे अध्यवसान मात्र होते हैं। यदि कोई कहे कि किसी 'वाद' या सम्प्रदाय के भीतर निरूपित वातों की अनुभूति सेरे हृदय में वैसी ही होती है जैसी उन गोचर रूपो यो व्यापारों की जिन्हें अभिव्यञ्जना के लिए मैं सामने रखता हूँ तो एक दूसरा ‘वादी' या सम्प्रदायी उन्हीं रूपो और व्यापारो को अपने सम्प्रदाय की बिल्कुल उलटी बातों की अनुभूति प्रदर्शित करने के लिए रखेगा । इस प्रकार कविता के साम्प्रदायिक हो जाने पर प्रकृति के रूप और व्यापार अपने सच्चे अभिव्यक्ति-क्षेत्र से बाहर घसीटे जाकर साम्प्रदायिकों की खींचतान में पड़े रहेगे और अपना असली प्रभाव खो बैठेंगे । • काव्य की प्रस्तुत वस्तु या तथ्य विचार और अनुभव से सिद्ध; लोक-स्वीकृत और ठीक ठिकाने का होना चाहिए, क्योकि व्यञ्जना उसी की होती है। हमारे यहाँ दर्शन के नाना चादी को काव्यक्षेत्र मे घसीटने की प्रथा नहीं थी। अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, विशुद्धाद्वैत इत्यादि