पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/८१

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चिन्तामणि

७४ चिन्तामणि अनेक वेदान्ती दाद प्रचलित हुए पर काव्यक्षेत्र से, भक्तिकाव्य में भी, दूर ही रखे गए । निर्गुण-सम्प्रदायवाले ही सूफियो की नकल पर अद्वैतवाद, मायावाद, प्रतिविम्यवाद इत्यादि की व्यञ्जना तरह-तरह के रूपको, साध्यवसान रूपको, * अन्योक्तियो इत्यादि द्वारा चित्ती- कर्पिणी मूर्तिमत्ता के साथ करते रहे । ब्रह्म, माया, पञ्चेन्द्रिय, जीवात्मा, विकार, परलोक आदि को लेकर कबीरदास ने अनेक मृर्त्त स्वरूप खड़े किए हैं। इन मृर्त रूपको में ध्यान देने की बात यह है कि जो रूपयोजना केवल अद्वैतवाद, मायावाद आदि वादो के स्पष्टीकरण के लिए की गई है उसकी अपेक्षा वह रूपयोजना जो किसी मर्वस्वीकृत, सर्वानुभूत तथ्य को भावक्षेत्र में लाने के लिए की गई है, कहीं अधिक मर्म- पशिणी है। उदाहरण के लिए मायावादसमन्वित अद्वैतवाद के स्पष्टी- करण के लिए कबीर की यह उक्ति लीजिए--- जल में कुंभ, कुंभ में जल है, वहरि भीतरि पानी । फूटा कुंभ, जल जलहि समाना, यह तत कधौ गियानी ॥ यह वेदान्त-ग्रन्थो मे लिखा हुआ दृष्टान्त-कथन मात्र है। अच्छा इसी ढंग की एक दूसरी कुछ और विस्तृत रूपयोजना देखिए- मन न डिगै तार्थे तन न डराई ।। अति अथाह जल गहिर गै भीर, बाँधि जंजीर जलि वोरे हैं कबीर । जल की तरंग उठी, कटी हैं जीर; हरि सुमिरन-तट बैठे हैं कवीर ।।

  • इसे रूपकातिशयोक्ति से भिन्न समझना चाहिए जिसमें अध्यवसान

अतिशय्य की व्यञ्जना के लिए होता है । साध्यवसान रूपक (Allegory ) में अध्यवसान केवल मूरी प्रत्यक्षीकरण के लिए होता है, आतिशय्य को व्यञ्जनी के लिए नहीं । साध्यवसान रूपक एक भद्दी चीज़ है इसे विलायती रहस्यवादी ईट्स ( Yeats ) तक स्वीकार करते हैं।