पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/८२

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काव्य में रहस्यवाद ७५. इसमें ज्ञानोदय द्वारा अज्ञान का बन्धन कटने और भवसागर के पार लगने का संकेत है। यह बन्धन हरि की कृपा से कहा है, इससे कबीरदास अब उनका स्मरण करते और गुण गाते हैं। यह एक निरूपित सिद्धान्त का वास्तव में घटित तथ्य के रूप में चित्रण मात्र है । ज्ञान से मुक्ति होती है और ज्ञान ईश्वर के अनुग्रह से होती है।" यह एक 'वाद' या सिद्धान्त है । कबीरदासजी इस बात को इस रूप में सामने पेश करते है मानों यह सचमुच हुई है—वे भव- सागर के पार हो गए हैं और फूले नहीं समा रहे हैं। हम जानते हैं। कि इसकी व्याख्या के लिए ऐसे बँधे और मॅजे हुए वाक्य मौजूद हैं। कि “यह तो साधक की उस दिव्य अनुभूति की दशा है जिसमें वह अपने को इस भौतिक कारागार से मुक्त और ब्रह्म की ओर अग्रसर देखता है। पर यदि कोई कहे कि यह सब कुछ नहीं ; यह एक साम्प्रदायिक सिद्धान्त को काव्य के ढंग पर स्वीकार मात्र है, तो हम उसका मुंह नहीं थाम सकते । अव देखिए कि उक्त दोनों उक्तियो की अपेक्षा कबीरदासजी की नीचे दी हुई दो उक्तियों, जो लोकगत या अनुभवसिद्ध तथ्यों को सामने रखती हैं, कितनी मर्मस्पर्शणी हैं। देहावसान सवसे अधिक निश्चित एक भीषण तथ्य है । उसके निकट होने की कैसी मूर्तिमान चेतावनी इस साखी में हैं । बाढी आवत देखि करि तरिवर डोलन लाग ।। हमें कटे की कुछ नहीं, पखेरू घर भाग ।। ‘हवा में हिलता पेड़ मानो वहुई को आता देख कॉपता है- चुढापे से हिलता शरीर मानो काल को पास पहुँचता देख थर्राता है । शरीर कहता है कि हमारे नष्ट होने की परवा नही ; हे आत्मा ! तू अपनी तैयारी कर ।”