पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/८३

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चिन्तामणि

चिन्तामणि ऐसी एक और उक्ति लीजिए--- मेरो हार हिरनो मैं लजाउँ । हार गुह्यो मेरो रास-ताग, मिचि-चिचि मानिक एक लगि । पंच सखी मिली हैं सुजान, 'चलहु ते जइए त्रिवेनी न्हान' । न्हाइ धोइ के तिलक दीन्ह, ना जानू हार झिनहि लन्हि । हार हिरानो, जन विलम कीन्ह, मेरो हार परोसिनि अहि लीन्ह । यह उस मन के खो जाने का पछतावा है जो ईश्वर का स्मरण किया करता था । जीवात्मा कहता है कि मुझे पञ्चन्द्रियाँ बहका- कर त्रिगुणात्मक प्रवाह में अवगाहन कराने ले गई जहाँ मेरा मन फंस गया । उसी-मन के प्रेम को लेकर मुझे उस प्रिय के पास जाने का अधिकार था । अब उसके बिना जाते नहीं बनता । इन्द्रियों ने मुझे चेतरह ठगा' । इस पद में ईश्वर और परलोक मानने- वाले मनुष्य मात्र की सामान्य भावना का अनुसरण करके वड़ा ही मधुर मूर्त्त विधान है। कुछ खटकनेवाला शब्द 'त्रिवेणी' ( त्रिगुणा- मक प्रवाह ) है क्योकि प्रकृति के तीन गुण एक दर्शन विशेप के भीतर की निरूपित संख्या है। पर इस शब्द से अध्यवसान में बड़ा सुन्दर समन्वय हो गया है । अन्योक्ति-पद्धति का अवलम्बन कबीरदासजी ने कम ही किया है। अधिकतर स्थानों में उन्होने विकारो, भूतो, इन्द्रियो, चक्रो, नाड़ियो इत्यादि की शास्त्रो में चॉधी हुई केवल संख्याओं का उल्लेख साध्य- वसान रूपको मे करके पहेली बुझाने का काम किया है। उनकी जो अन्योक्तियाँ या अध्यवसान प्रहेलिका के रूप में नहीं है और वादमुक्त हैं वे ही शुद्ध काव्य के अन्तर्गत आ सकते है। वाद या सिद्धान्त के रूप में प्रतिपादित वातो को स्वभाव-सिद्ध तथ्य के रूप में चित्रित करना और उनके प्रति अपने भावों का वेग प्रदर्शित करके औरो के हृदय में उस प्रकार की अनुभूति उत्पन्न करने की चेष्टा करना, हम