पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/८८

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काव्य मे रहस्यवाद् “थूमा । अपना पाप समझो। तुम डर से नहीं.-भागे हो, न । आदमी एक बार डर से सिटपिटाता है, पर फिर साहस करके सब प्रकार की आपत्तियाँ झेलने के लिए तैयार हो जाता है। तुम भागे हो अपनी बुद्धिमानी और दूरदर्शिता के कारण । यह बुद्धिमानी भी बड़ा भारी पाप है क्योकि यह मनुष्य की अन्तःप्रकृति में निहित अज्ञात शक्तियो पर विश्वास नहीं करने देती । उनकी प्रेरणाओं को यह सस्ते अनुभवलब्ध विवेचन के पलड़े पर रखकर तोलती है। यह लालसा को ज्ञान या विचार के घेरे में डालकर संकुचित करती है। पर यह समझ रखो कि मनुष्य उतना ही बड़ा हो सकता है जितना बड़ा उसका अभिलाष होगा । अतः आत्मदृष्टि उतनी ही दूर तक बँधी न रखो जितनी दूर तक तुम्हारे ज्ञान और बुद्धि के दीपक का प्रकाश पहुँचता है। अपनी लालसा को अज्ञात के अन्धकार की ओर छानबीन करने के लिए बढ़ाओ । सम्भव को जानकर उसके बाहर अनहोनी बातो और असम्भव लक्ष्यों की ओर बढ़ो। धीरे-धीरे तुम देखोगे कि तुम्हारा ज्ञात की लालसा का क्षेत्र भी आप से आप वैसा ही व्यापक हो जायेगा जैसा आत्मा का । इस प्रकार सृष्टि का उद्देश्य पूर्ण हो जायगा । | इस प्रकार हजरत ईसा के मुंह से रहस्यवाद के सिद्धान्त-पक्ष का निरूपण कराया गया है। इसका निचोड़ यही है कि लालसा को व्यक्त और ज्ञात के बाहर, अव्यक्त और अज्ञात तक ले जाना चाहिए। इस कथन पर विचार करने के पहले लालसा या अभिलाष को स्वरूप निश्चित कर लेना चाहिए । लालसा ऐसी वस्तुओं के प्रति होती है। जिनकी प्राप्ति या साक्षात्कार से सुख और आनन्द होता है। इस जगत् में सुख और आनन्द दुःख और क्लेश के साथ मिला-जुला पाया जाता है । दूसरी बात यह है कि जितना आनन्द, जितना सुखसौन्दर्य इस जगत् में देखा जाता है उतने से मनुष्य की भावना परितृप्त