पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
८२
चिन्तामणि

________________

चिन्तामणि नहीं होती । वह सुख-सौन्दर्य को अधिक पूर्ण रूप में देखा चाहती हैं । भावना या कल्पना को इस पूर्णता के अवस्थान के लिए चार क्षेत्र मिल सकते है-- । (१) इस भूलोक के बाहर, पर व्यक्त जगत के भीतर ही किसी अन्य लोक मे ।। (२) इस भूलोक के भीतर ही, पर अतीत के क्षेत्र में । (३) इस भूलोक के भीतर ही, पर भविष्य के गर्भ में । (४) इस गोचर जगत् के परे अभौतिक और अव्यक्त के क्षेत्र में । १---इन चारो क्षेत्रों के भीतर ले जाकर मनुष्य अपनी सुखसौन्दर्य और मङ्गल की भावना को पूर्णता या पराकाष्ठा तक पहुँचाने का थोड़ा या बहुत प्रयत्न करता रहा है। इनमें से प्रथम क्षेत्र की ओर मनुष्यजाति का ध्यान स्वभावतः सबसे पहले गया । पृथ्वी पर रहकर भी मनुष्य ने व्यक्त जगत् की अनन्तता का प्रत्यक्ष अनुभव किया । अनन्त आकाश के बीच नक्षत्रों के रूप में अनन्त लोको का निश्चय उसे सहज में हो गया । वहीं पर कही उसकी भावना ने स्वर्ग आदि पुण्य लोको का अवस्थान किया जहाँ जरा-मृत्यु का भय नही ; दुख, क्लेश, भय का नाम नही ; आनन्द ही आनन्द हैआनन्द भी ऐसावैसा नहीं नन्दन-कोनन का विहार । लोक-सामान्य धर्म-व्यवस्था और काव्य दोनो मे इस भावना का उपयोग हुआ ।। | २--द्वितीय क्षेत्र में सुख-सौन्दर्य की पूर्णता की भावना उस समय से हुई जव प्राचीन इतिहास, कथा-पुराण आदि का सौखिक प्रचार मनुष्यजाति के बीच हुआ । इन कथाओं में पूर्वकाल की वीरता, धीरता, धर्मपरायणता, सुख-समृद्धि आदि को बहुत ही मनोरञ्जक और अत्युक्त वर्णन रहता था जिसे सुनते-सुनते भूतकाल के बीच