पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/९५

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चिन्तामणि

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८६ चिन्तामणि नहीं । अव्यक्त, निर्गुण, निर्विशेप ( Absolutte ) ब्रह्म उपासना के व्यवहार में सगुण ईश्वर हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि उपासना जत्र होगी तत्र व्यक्त र सगुण की ही होगी ; अव्यक्त और निर्गुण की नहीं । 'ईश्वर' शब्द ही सगुण और विशेष का द्योतक है ; निर्गुण और निविशेष का नहीं । उसके भीतर सेव्य-सेवक भाव छिपा हुआ है। स्थूले प्रकार मात्र हटाकर दया, अनुग्रह, प्रेम, सौन्दर्य इत्यादि में योरपवाले चाहे अभातिक, अगचर, अव्यक्त या परी सत्ता की प्राप्ति समझ ले ; पर सूक्ष्म भारतीय दार्शनिक दृष्टि इन सत्रको प्रकृति के भीतर ही लगी । दया, अनुग्रह, औदार्य आदि मन की वृत्तियों है जो प्रकृति का ही विकार है। इसी प्रकार सौन्दर्य, माधुर्य आदि भूतो के गुण है। ये सब गोचर के अन्तर्भूत हैं, क्योकि मन जो इनका बोध करता हैं भीतरी इन्द्रिय ही है। भारतीय और योरपीय दृष्टि के इस भेद को ध्यान में रखना चाहिए । भारतीय दृष्टि के अनुसार अज्ञात और अव्यक्त के प्रति केवल जिज्ञासा हो सकती है ; अभिलप या लाला नहीं । यदि कहा जाय कि 'मोक्ष' की इच्छा को फिर क्या अर्थ होगा ? इसका उत्तर यह है कि मोक्ष या मुक्ति केवल अभाव-सूचक ( Negative ) शब्द हैं, जिसका अर्थ है छुटकारा । जिससे मोक्षार्थी छुटकारा चाहता है वह दुःख-क्लेशादि का संघात उसे ज्ञात होता है । छुटकारे के पीछे क्या दशी होगी, इसका न तो उसे कुछ ज्ञान होता है और न अभिलाष हो सकता है। इसी से हमारे यहाँ के भक्त लोग, जो ब्रह्म के सगुण रूप में आसक्त होते है, मुक्ति के मुंह में धूल डाल करते है। जिज्ञासा और लालसा में बड़ा भेद है । जिज्ञासा केवल जानने की इच्छा है। उसको ज्ञेय वस्तु के प्रति राग, द्वेष, प्रेम, घृणा इत्यादि का कोई लगाव नहीं होता । उसका सम्वन्ध शुद्ध ज्ञान के साथ होता है । इसके विपरीत लालसा या अभिलाष रतिभाव का एक अङ्ग है । अव्यक्त