पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/९६

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काव्य मे रहस्यवाद ब्रह्म की जिज्ञासा और व्यक, सगुण ईश्वर या भगवान् के सान्निध्य का अभिलाष, यही भारतीय पद्धति है । अव्यक्त, अभौतिक और अज्ञात का अभिलाष यह बिल्कुले विदेशी कल्पना है और मजहबी रुकावटों के कारण पैगम्बरी मत माननेवाले देशो में की गई है । इसकी साम्प्रदायिकता हम आगे चलकर दिखाएँगे । यहाँ इतना ही कहने का प्रयोजन है कि अव्यक्त, अगोचर ज्ञानकाण्ड का विपय है। हमारे यहाँ न वह उपासनाक्षेत्र में घसीट गया है ; न काव्यक्षेत्र में । ऐसी वेढव जरूरत ही नहीं पड़ी ।। उपासना के लिए इन्द्रिय और मन से परे ब्रह्म को पास लाने की जरूरत हुई । कहीं तो वह ईश्वर के रूप में केवल मन के पास लाया गया--अर्थात् उसके रूप, आकार आदि की भावना न करके केवल दया, दाक्षिण्य, प्रेम, औदार्य आदि की ही भावना की गई। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह केवल अन्तःकरण-ग्राह्य भावना भी गोचर भावना ही है । कही इसके आगे बढ़कर विष्णु, शिव इन देव-रूपों में---अर्थात् मनुष्य से ऊँची कोटि मे-बाह्य-करण-ग्राह्य भावना भी हुई । भारतीय भक्ति-भावना यहीं तक तुष्ट न हुई। बड़े साहस के साथ आगे बढ़कर उसने नर में ही नारायणत्व का दर्शन किया। राम और कृष्ण को लेकर भक्तिकाव्य का प्रवाह बड़े वेग से चल पड़ा । सारांश यह कि सान्निध्य का अभिलाष अव्यक्त और अज्ञात को दूसरी ओर छोड़कर, व्यक्त, और ज्ञात की ओर ही आकर्षित होता हुआ वढ़ा है और उसी को उसने अपना चरम लक्ष्य भी रखा है। यहाँ के भक्तो का साध्य कैवल्य नहीं रहा। अवे यह देखना चाहिए कि मनुष्य अपनी सुख-सौन्दर्य-भावना को जब पूर्णता के लिए चरम सीमा पर पहुंचाता है तब क्या वह सचमुच व्यक्त, भौतिक यो प्राकृतिक के परे हो जाता है ? उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वह इनके भीतर ही रहता है । भावना या