पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/९७

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चिन्तामणि

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चिन्तामणि कल्पना में आई हुई संघटित रूप-योजना, चाहे वह कितनी ही दूरारूढ़ हो, व्यक्त प्रकृति-विकार ही रहेगी। अब रहीं असीम-ससीम और नित्य-अनित्य की बात । हम पहले कह चुके हैं कि समष्टि रूप मे यह विश्व या व्यक्त जगन् अनन्त और शाश्वत हैं । ब्रह्म के मृर्तअमूर्त दो रूपों में से मृतं और सत को जो मर्त्य कहा है वह केवल सतत गतियुक्त था परिवर्तनशील के अर्थ में, सत्ता के अभाव के अर्थ में नहीं । अतः असीम और नित्य के लिए अव्यक्त और अगोचर में जाने की कोई जरूरत नहीं । ब्रह्मा के दोनो रूप असीम और नित्य हैं । इस मृर्त्त विराट के भीतर न जाने कितने लोक, ब्रह्माण्ड, सौरचक्र बनते बिगड़ते रहते हैं, पर इसकी रूप-सत्ता ज्यो की त्यो रहती हैं । अवरक्रोवे ने अपनी निकास' ( A11 Escape ) नाम की कविता में असीम और ससीम के अभिलाप के जिस द्वन्द्व का वर्णन बड़े रमणीय रूप-विधान के साथ किया है, वह वास्तव मे—भारतीय दृष्टि से---व्यक्त और गोचर के भीतर ही है । । देवाव ब्रह्मणो रूपो मूर्तचेवामूर्तञ्च, मर्यञ्चामृतज्ञ, स्थितञ्च यज्ञ, सच त्यञ्च ।---मूत्तमूतं ब्राह्मण ( वृहदारण्यकोपनिपद् )1 दृश्य या मूर्त के लिए 'सत्' शब्द का प्रयोग उपनिषदों में बहुत जगह हुअा है ।। i Desire of infine things, desire of finite--- ... 'tis the wrestle of the twain mahes man -istio joung winds schooled 'niong the slopes and cai es Or rival bulls that cach to other look Across a sunken tarn, on a still day, Run forth from tlıcır sundered nurseries, and meet In the middle air ...... And when they close, their struggle is called man, Distressing with lus strife and flurry the bland Pool of existence, that lay quiet before Holding the calm watch of Eternity