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६१ काव्य में रहस्यवाद् हमारा कहना यही है कि हृदय का अव्यक्त और अगोचर से कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता । प्रेम, अभिलाष, जो कुछ प्रकट किया जायगा वह अव्यक्त और गोचर ही के प्रति होगा। प्रतिबिम्बवाद, कल्पनावाद आदि वादो का सहारा लेकर इन भावो को अव्यक्त और अगोचर के प्रति कहना और अपने काल्पनिक रूप-विधान को ब्रह्म या पारमार्थिक सत्ती की अनुभूति बताना, काव्यक्षेत्र में एक अनावश्यक आडम्बर खड़ा करना है। यदि यह कहा जाय कि सदा बदलते रहनेवाले इस दृश्य प्रसार की तह में तो सदा एकरस रहनेवाली अव्यक्त सत्ता है ही, अतः जिस अनुराग के साथ प्रकृति की भव्य रूप-योजना की जाती है उसे उसी अव्यक्त शक्ति या सत्ता के प्रति कहने में क्या हर्ज है, तो इसका उत्तर यह है कि इससे भावक्षेत्र में असत्य का प्रचार होता और पाषंड का द्वार खुलता है। यदि कोई चटोरा अदिमी कोई वहुत ही मीठा फल खाकर जीभ चटकारता हुआ उसका बड़े प्रेम से वर्णन करे और पूछने पर कहे कि मेरा लक्ष्य उस फ्ल की ओर नहीं , उस वृक्ष के मूल या वीज की ओर है जिसका वह फल है, तो उसके इस कथन का क्या मूल्य होगा ? जो यह भी नहीं जानता कि ‘ब्रह्मवाद' और 'कविता' किन चिड़ियों के नाम हैं, जो अँगरेजी की अन्धी नक़ल पर बनी बॅगला की कविताओं तथा वैष्णव कवियों की बङ्ग-समीक्षाओं तक ही सारी दुनिया खतम समझता है, वह यदि मुंह बना-बनाकर कहने लगे कि “जब मैं ब्रह्मवाद की कोई कविता देखता हूँ तव हर्ष से नाच उठता हूँ तो एक सुशिक्षित सुननेवाले पर क्या असर होगा ? अब यहाँ पर थोड़ा यह भी विचार करने की आवश्यकता प्रतीत होती है कि भाव के क्षेत्र में परोक्ष की जिज्ञासा' का क्या उपयोग हो सकता है। स्वाभाविक रहस्यभावना में—जिसका किसी वाद के साथ कोई सम्बन्ध नहीं---इसका कभी-कभी बहुत सुन्दर उपयोग होता है।