पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/९९

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चिन्तामणि

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६२. चिन्तामणि वहाँ पर यह प्रकृति के क्षेत्र के किसी अभिव्यक्त सन्दर्य या माधुर्य से उठे हुए आहाद की अनुभूति की व्यञ्जना करता है । जैसे, शिशु की मधुर मुसकान पर मुग्ध होकर यदि कोई कवि कहे कि इसके अधरो पर किस ग्रानन्द-लाक की मधुर स्मृति सच्चरित हो रही है ? सौरभपूर्ण कुसुम-विकास देख यदि कहा जाय कि “यह किस सुखसौन्दर्य की अनन्त राशि से चोरी करके भाग आया है तो प्रस्तुत माधुर्य या सुख-सौन्दर्य के प्राचुर्य के निमित्त वडा सुन्दर औत्सुक्य व्यञ्जित होगा । ग्रह औत्सुक्य या अभिलार अव्यक्त या अज्ञात के प्रति कभी नहीं कहा जा सकता; यह व्यक्त या ज्ञात के प्रति ही होगा। कवि को अपने सामने उपस्थित माधुर्य या सुख-सन्दर्य इतना अन्छा लग रहा है कि वह इस भूक के अतिरिक्त किसी और व्यक्त अरि गोचर ही-लोक की भावना करता है जहाँ इस प्रकार के सुख-सौन्दर्य का दर्शन इतना विरल न हो, बराबर चारो ओर देखने को मिला करे । इसमें न कही असीम का अभिलार है, न अज्ञात की लालसा । यह उसी पुरानी स्वर्ग-भावना को आधुनिक सभ्यता के अनुकूल पडता हुआ रूप है । स्वर्ग के पुराने निश्चित विवरण में, आधुनिक परिष्कृत रुचि के अनुसार, जो भद्दापन है वह इस अनिश्चित भावना में दूर हो जाता है। शेली ने अपनी जिज्ञासा ( The Questio11 ) नाम की कविता बड़ी सुन्दर जिज्ञासा के साथ समाप्त की है। स्वप्न में वे वसन्तविकास और सौरभ से पूर्ण एक अत्यन्त रमणीय नदी-तट पर पहुँचते हैं। उस व्यक्त और गोचर स्थल का ही वहुत सम्वद्ध और संश्लिष्ट चित्रण सारी कविता में हुआ है। अन्त में जाकर वे कहते हैं कि “मैने फूलो को चुन-चुनकर बहुत सुन्दर स्तवक तैयार किया और बड़े आह्लाद के साथ वहाँ दौड़ा गया जहाँ से आया था कि उसे अर्पित करूं । पर अरे ! किसे ?” इस 'किसे में अद्वैत