पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१८१

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ईश्वर का टर १७५ कालका अधिकतर भयभीत होकर बोला-किसे ? मुझे १ अरे नहीं सरकार, मैं तो कल रात को पेशाब करने सक नहीं उठा । सधुवा बोला-कौन ससुर कहता है ? आकुर साहब ने कहा- यह टकना चमार कहता है । संधुवा ने ढंकना की ओर देखकर पूछा-क्यों रे, क्या कहता है ? उकना घुप खड़ा रहा। कुछ उत्तर नहीं दिया।। ठाकुर साहवं ने ढंकना से कहा-प्रवे, जो देखा है, सो कहता क्यों नहीं? गकुर साहब ने गुप्त रूप से ढकना पर एक तीव्र दृष्टि डाली। ढकना ने कहा- सरकार, कालका को एक प्रादमी ले बातें करते देखा था। वाकुर साहब-कहाँ देखा था? टकना--विदा महराज के घर के पास । सधुवा ढकना को गाली देकर बोला-अपना सिर देखा था। साले को दिन में तो सूझता नहीं, रात को देखा था। क्यों भैया, हमने तुम्हारे साथ कौन दगा की है ? एक तो मेरा बच्चा गाँव छोड़े परदेस में पड़ा है। चार दिन की खातिर घर आया है, तो अव यह पाप लगायोगे। अरे ज़रा भगवान् को डरो । ऐसा अंधेर न करो! ढकना फिर चुप हो गया। उसके मुंह पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। ठाकुर साहब ने उसे फिर धूरा । वह बोला-भैया, जो देखा, सो कह दिया । पाप तो हम किसों को लगाते नहीं। सधुवा बोजा-पाप नहीं लगाते, तो करते क्या हो ? मुँह पर खड़े सरासर झूठ बोल रहे हो, और ऊपर से कहते हो; पाप नहीं बंगाता। ठाकुर साहब ने कहा-अच्छा खैर, इस झगड़े से क्या मतलब । याने में रपट हो जानी चाहिए । थानेदार भाप पता लंगा लेंगे।