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चोखे चौपदे


दो जने कोई बदल करके जिन्हे।
कर सके भायप रँगों मे रँग बसर॥
है तुमारे सारपन की ही सनद।
सिर तुमारी उन पगड़ियों का असर॥

सिर और सेहरा

सोच लो, जी मे समझ लो, सब दिनों।
यों लटकती है नही मोती-लड़ी॥
जव कि तुम पर सिरसजा सेहरा बॅधा।
मुॅह छिपाने की तुम्हे तब क्या पड़ी॥

ला न दे सुख मे कहीं दुख की घड़ी।
ढा न दें कोई सितम आँखें गड़ी॥
मौर बँधते ही इसी से सिर तुम्हें।
देखता हूॅ मुॅह छिपाने की पड़ी॥

अनसुहातो रगतें मुॅह की छिपा।
सिर! रहें रखतो तुम्हारी बरतरी॥
इस लिये ही हैं लटक उस पर पड़ी।
मौर की लड़ियां खिले फलों भरी॥