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काम के कलाम
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कर बुरा अपना भला चाहे न हम। हित हमारे हों न अनहित मे सने॥ जाय तन तन-परवरी परतुल नही। मतलबों का मन न मतवाला बने॥</poem>



पते की बातें

रुच गई तो रगरलिया किस तरह।
दिल न जो रगीनियों मे था रँगा॥
छिप सकेगी तो लहू की चाट क्यों।
हाथ मे लोहू अगर होवे लगा॥

किस तरह तब निकल सके कीना।
जब कसर ही निकल न पाती है॥
किस लिये बाल-दूब तो न जमी।
जो न पत्थर समान छाती है॥

चैन लेने कभी नही देंगी।
खटमलों से भरी हुई गिलमें॥
क्यों नहीं काढ़ता कसर फिरता।
जब कसर भर गई किसी दिल में॥