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काम के कलाम

चाहिये था कि गुन भरे के गुन।
भाव मे ठीक ठीक भर जाते॥
पा सके जो न एक गुन भी तो।
क्या रहे बार बार गुन गाते॥

क्या हुआ मुँह से सदा हरि हरि कहे।
दूसरों का दुख न जब हरते रहे॥
जब दया वाले बने न दया दिखा।
तब दया का गान क्या करते रहे॥

उठ दुई का सका कहां परदा।
भेद जब तक न भेद का जाना॥
एक ही आँख से सदा सब को।
कब नहीं देखता रहा काना॥

तह बतह जो कीच है जमती गई।
कीच से कोई उसे कैसे छिले॥
तब भला किस भाँत अंधापन टले।
जब किसी अंधे को अंधा ही मिले॥