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चोखे चौपदे

क्यों कड़े ऑख से न चिनगारी।
क्यों न उठने लगे लवर तन मे॥
क्यों बचन तब बने न अगारे।
कोप को भाग जब जली मन में॥

यम नही हैं भयावने वैसे।
है न रौरव नरक बुरा वैसा॥
है अधमता सभी भरी उस में।
है अधम कौन मन अधम जैसा॥

टूट पड़ती रहे मुसीबत सब।
खेलना सॉप से पड़े काले॥
काल डाले सकल बलाओं में।
पर पड़े मन न कोप के पाले॥

कुछ करेगे रंग बिरगे तन नहीं।
जायगी बहुरगियों में बात बन॥
रग में उस के सभी रॅग जायगा।
प्रेम रंगत मे अगर रँग जाय मन॥