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निराले नगीने

हो सकेगा कुछ नही काया कसे।
जो पराया बन नही पाया सगा॥
योग जप तप रगतों में क्या रँगे।
जो न परहित रग मे मन हो रँगा॥

मूल उस को कमाल का समझे।
छोड़ जंजाल जाप का जपना॥
सोच अपना बिकास अपना हित।
मन जगत को न मान ले सपना॥

है अगर घट मे नही गगा बही।
कौन तो गंगा नहा कर के तरा॥
तो न होवेंगे बिमल जल से धुले।
है अगर मन मे हमारे मल भरा॥

है बड़े, सुन्दर सुरों की संगिनी।
बज रही है भाव मे भर हर घड़ी॥
रस बरस कर है सुरत को माहती।
बांसुरी मन की सुरीली है बड़ी॥