पृष्ठ:चोखे चौपदे.djvu/२३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२२७
कोर कसर

आँख पुर नेह से रही जिस की।
अब नहीं नेह है उसी तिल में॥
खोलता गाँठ जो रहा दिल की।
पड़ गई गॉठ अब उसी दिल में॥

फूल हम होवें मगर कुछ भल से।
दूसरों की ऑख में काँटे जँचे॥
क्यों बचाये बच सकेगी आबरू।
जी बचायें जो बचाने से बचे॥

ठीक था ठीक ठीक जल जाता।
जो सका देख और का न भला॥
रंज है देख दसर्स का हित।
जी हमारा जला मगर न जला॥

कर सकें हम बराबरी कैसे।
है हमे रंगतें मिली फीकी॥
हम कसर हैं निकालते जी से।
वे कसर हैं निकालते जी की॥