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चोखे चौपदे

फूल को चूम, छू हरे पत्ते।
बास से बस जगह जगह अड़ती॥
जो न पड़ती लपट पवन ठंढी।
तो लपट धूप की न पट पड़ती॥

कोयल

कूक करके निज रसीले कंठ से।
है निराला रस रगों में भर रही।।
कोयले से रंग में रंगत दिखा।
है दिलों में कोयलें घर कर रही।।

रंग बिरंगे फूल है फूले हुए।
है दिसायें रँग बिरगी गूँजती॥
चहचहा चिड़ियाँ रही हैं चाव से।
भौंर गूँजे, कोयलें हैं कूजती॥

मन मराया दिल हुआ कुछ और हो।
कोपलों में हे छटा वेसी कहाँ।।
सुन जिसे जी की कली खिलती रही।
कोयलों में कूक है ऐसी कहाँ।।