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केसर की क्यारी
चाह जो यह है कि हाथों से पले ।
पेड़ पौधों से अनूठे फल चखें ॥
तो जिले है प्रॉख मे रखते सदा ।
चाहिये हम आँख भी उस पर रखे ॥
जो न चित का नित बना चाकर रहा ।
बात चितवन के नहीं जिस पर चले ॥
है जिसे पैसा नचा पाता नहीं ।
आ सका ऐसा न आँखों के तले ॥
किस तरह से सॅमल सकेंगे वे ।
अपने को जो नही सँभालेंगे ॥
क्यों न खो देंगे आँख का तिल वे ।
आँख का तेल जो निकालेगे ॥
सघ सकेगा काम तब कैसे भला ।
हम करेंगे साधने मे जब कसर ॥
काम आयेंगी नही चालाकियाँ ।
जब करेंगे काम आँखें बद कर ॥