पृष्ठ:चोखे चौपदे.djvu/९९

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सिर और पगड़ी

सिर! उछाली पगड़ियाँ तुम ने बहुत।
कान कितनों का करार यों ही दिया॥
लोग भारो कह भले ही लें तुम्हें।
पर तुमारा देख भारीपन लिया॥

सूझ के हाथ पॉव जो न चले।
जो बनी ही रही समझ लॅगड़ी॥
तो तुमारी न पत रहेगी सिर।
पॉव पर डालते फिरे पगड़ी॥

जब तुम्ही ने सब तरह से खो दिया।
तो बता दो काम क्या देती सई॥
सोच है पगड़ी उतरने का नहीं।
सिर! तुमारी तो उतर पत भी गई॥

देखता हू आजकल की लत बुरी।
सिर तुमारी खोपड़ी पर भी डटी॥
लाज पगड़ी की गॅवा, मरजाद तज।
जो तुमारी टोपियों से ही पटी॥