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जहाँनारा
 


स्वीकार किया, और अब वह साधारण दासी के वेश में अपना जीवन अभागे पिता की सेवा में व्यतीत करती है।

वह भड़कदार शाही पेशवाज अब उसके बदन पर नहीं दिखाई पड़ती, केवल सादे वस्त्र ही उसके प्रशान्त मुख की शोभा बढ़ाते है।चारों ओर उस शाही महल मे एक शान्ति दिखलाई पड़ती है । जहांनारा ने, जो कुछ उसके पास थे, सब सामान गरीबों को बांट दिये; और अपने निज के बहुमूल्य अलंकार भी उसने पहनना छोड़ दिया। अब वह एक तपस्विनी ऋषिकन्या-सी हो गयी! बात-बात पर दासियों पर वह झिड़की उसमें नहीं रही। केवल आवश्यक वस्तुओं से अधिक उसके रहने के स्थान में और कुछ नहीं है ।

वृद्ध शाहजहां ने लेटे-लेटे आंख खोलकर कहा---बेटी, अब दवा की कोई जरूरत नहीं है, यादे-खुदा ही दवा है। अब तम इसके लिये मत कोशिश करना ।

जहांनारा ने रोकर कहा---पिता, जब तक शरीर है, तब तक उसकी रक्षा करनी ही चाहिये ।

शाहजहां कुछ न बोलकर चुपचाप पड़े रहे । थोड़ी देर तक जहांनारा बैठी रही ; फिर उठी और दवा की शीशियां यमुना के जल में फेक दी।

थोड़ी देर तक वहीं बैठी-बैठी वह यमुना का मन्द प्रवाह देखती रही । सोचती थी कि यमुना का प्रवाह वैसा ही है, मुगल-साम्राज्य भी तो वैसा ही है; वह शाहजहां भी तो जीवित है, लेकिन तख्त-ताऊस पर तो वह नहीं बैठते !

इसी सोच-विचार में वह तब तक बैठी थी, जब तक चन्द्रमा की किरणें उसके मुख पर नहीं पड़ी।

शाहजादी जहांनारा तपस्विनी हो गयी है। उसके हृदय में