पृष्ठ:छाया.djvu/१०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०१
जहाँनारा
 


पाषाण भी पिघला, औरंगजेब की आंखें आंसू से भर आयीं और वह घुटने के बल बैठ गया। समीप मह ले जाकर बोला---बहिन, कुछ हमारे लिये हुक्म है ?

जहांनारा ने अपनी आंखें खोल दी एक और पुरजा उसके हाथ में दिया जिसे झुककर औरंगजेब ने ले लिया। फिर पूछा-बहिन, क्या तुम हमें माफ करोगी?

जहांनारा ने खुली हुई आंखों को आकाश की ओर उठा दिया।उस समय उसमें से एक स्वर्गीय ज्योति निकल रही थी और वह वैसे ही देखती रह गयी । औरंगजेब उठा और उसने आंसू पोंछते हुए पुरजें को पढ़ा। उसमें लिखा था--

बगैर सब्जः न पोशद कसे मजार मरा ।

कि कब्रपोश गरीबां हमीं गयाह बसस्त ।

----