पृष्ठ:छाया.djvu/११

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छाया
 


है । अपनी खिचड़ी आंच पर चढाकर प्रायः चबूतरे पर आकर गुन-गुनाया करता । ऐसा करने की उसे मनाही नही थी । सरदार भी कभी-कभी खड़े होकर बड़े प्रेम से उसे सुनते थे । किन्तु उस गुन-गुनाहट ने एक बड़ा बेढब कार्य किया । वह यह कि सरदार-महल की एक नवीना दासी, उस गुनगुनाहट की धुन में, कभी-कभी पान मे चूना रखना भूल जाया करती थी, और कभी-कभी मालकिन के 'किताब' मांगने पर 'आफताबा' ले जाकर बड़ी लज्जित होती थी।पर तो भी बरामदे में से उसे एक बार उस चबूतरे की ओर देखना ही पड़ता था।

रामप्रसाद को कुछ नहीं---वह जगंली जीव था। उसे इस छोटे- से उद्यान में रहना पसन्द नहीं था, पर क्या करें । उसने भी एक कौतुक सोच रक्खा था। जब उसके स्वर में मुग्ध होकर कोई अपने कार्य में च्युत हो जाता, तब उसे बड़ा आनन्द मिलता।

सरदार अपने कार्य में व्यस्त रहते थे । उन्हें संध्या को चबूतरे पर बैठकर रामप्रसाद के दो-एक गान सुनने का नशा हो गया था। जिस दिन गाना नहीं सुनते, उस दिन उनको वारुणी में नशा कम हो जाता---उनकी विचित्र दशा हो जाती थी। रामप्रसाद ने एक दिन अपने पूर्व-परिचित सरोवर पर जाने के लिये छुट्टी मांगी; मिल भी गई।

संध्या को सरदार चबूतरे पर नहीं बैठे, महल में चले गये । उनकी स्त्री ने कहा--आज आप उदास क्यों हैं ?

सरदार--रामप्रसाद के गाने में मुझे बड़ा ही सुख मिलता है।

सरदार-पत्नी---क्या आपका रामप्रसाद इतना अच्छा गाता है जो उसके बिना आपको चैन नहीं ? मेरी समझ में मेरी बांदी उससे अच्छा गा सकती है ।