एक नौकर दौड़कर आया— हुजूर, क्या हुक्म है?
युवक ने कहा— इनके भोजन करने के लिये ले आओ।
भोजन के उपरान्त बालक युवक के पास आया। युवक ने एक घर दिखाकर कहा कि उस सामने की कोठरी में सोओ और उसे अपने रहने का स्थान समझो।
युवक की आज्ञा के अनुसार बालक उस कोठरी मे गया, देखा तो एक साधारण-सी चौकी पड़ी है; एक घड़े में जल, लोटा और गिलास भी रक्खा हुआ है। वह चुपचाप चौकी पर लेट गया।
लेटने पर उसे बहुत-सी बाते याद आने लगीं, एक-एक करके उसे भावना के जाल में फँसाने लगीं। बाल्यावस्था के साथी, उनके साथ खेल-कूद, राम-रावण की लड़ाई, फिर उस विजया-दशमी के दिन की घटना, पड़ोसिन के अंग में तीर का धँस जाना, माता की व्याकुलता, और मार्ग के कष्ट को सोचते-सोचते उस भयातुर बालक की विचित्र दशा हो गयी!
मनुष्य की मिमियाई निकालनेवाली द्वीप-निवासिनी जातियों की भयानक कहानियां, जिन्हें उसने बचपन में माता की गोद में पड़े-पड़े सुना था, उसे और भी डराने लगीं। अकस्मात् उसके मस्तिष्क को उद्वेग से भर देनेवाली यह बात भी समा गयी कि— ये लोग तो मुझे नौकर, बनाने के लिये अपने यहां लाये थे, फिर इतने आराम से क्यों रक्खा है? हो-न-हो वही टापूवाली बात है। बस फिर कहां की नींद और कहा का सुख, करवटें बदलने लगा! मन मे यही सोचता था कि यहां से किसी तरह भाग चलो।
परन्तु निद्रा भी कैसी प्यारी वस्तु है! घोर दुःख के समय भी मनुष्य को यही सुख देती है। सब बातों से व्याकुल होने पर भी वह कुछ देर के लिये सो गया।
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