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मदन-मृणालिनी
 


मदन उसी घर में रहने लगा। अब उसे उतनी अबराहट नहीं मालूम होती। अब वह निर्भय-सा हो गया है । किन्तु अभी तक वह बात कभी-कभी उसे उधेड़-बुन में लगा देती है कि ये लोग मुझसे इतना अच्छा बर्ताव क्यों करते है और क्यों इतना सुख देते है । पर इन सब बातों को वह उस समय भूल जाता है, जब 'मृणालिनी' उसकी रसोई बनवाने लगती है---देखो, रोटी जलती है, उसे उलट दो,दाल भी चला दो---इत्यादि बातें जब मृणालिनी के कोमल कण्ठ से वीणा की झंकार के समान सुनाई देती है, तब वह अपना दुःख माता का सोच--सब भूल जाता है।

मदन है तो अबोध, किन्तु संयुक्तप्रान्तवासी होने के कारण स्पृश्यास्पृश्य का उसे बहुत ही ध्यान रहता है । वह दूसरे का बनाया भोजन नहीं करता । अतएव मृणालिनी आकर उसे बताती है और भोजन के समय हवा भी करती है ।

मृणालिनी गृहस्वामी की कन्या है । वह देवबाला-सी जान पड़ती है। बड़ी-बड़ी आंखे, उज्ज्वल कपोल, मनोहर अंगभंगी गुल्फविलम्बित केश-कलाप उसे और भी सुन्दरी बनने में सहायता दे रहे है । अवस्था तेरह वर्ष की है; किन्तु वह बहुत गम्भीर है।

नित्य साथ होने से दोनों में अपूर्व भाव का उदय हुआ है।बालक का मुख जब आग की आंच से लाल तथा आंखें धुएँ के,कारण आंसुओं से भर जाती है, तब बालिका आंखों में आंसू भर कर, रोष-पूर्वक पंखी फेककर कहती है---लो जी, इससे काम लो,क्यों व्यर्थ परिश्रम करते हो ? इतने दिन तुम्हें रसोई बनाते हुए, मगर बनाना न आया !

तब मदन आंच लगने के सारे दुःख को भूल जाता है---तब उसकी तृष्णा और बढ़ जाती है; भोजन रहने पर भी भूख सताती है । और, सताया जाकर भी वह हँसने लगता है । मन-ही-मन सोचता, मृणालिनी ! तुम बंग-महिला क्यों हुई ?