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मदन-मृणालिनी
 


मदन, मृणालिनी-दोनों एकाग्रचित्त हो उस ओजस्विनी कवि-वाणी को जातीय संगीत में सुनने लगे। किन्तु वहां कुछ दिखाई न दिया । चकित होकर वे सुन रहे थे। प्रबल वायु भी उत्ताल तरंगों‌ को हिलाकर उनको डराता हुआ उसी की प्रतिध्वनि करता था। मंत्र-मुग्ध के समान सिन्धु भी अपनी तरंगों के घात-प्रतिघात पर चिढ़कर उन्ही शब्दों को दुहराता है । समुद्र को स्वीकार करते देख कर अनन्त आकाश भी उसी की प्रतिध्वनि करता है।

धीरे-धीरे विशाल सागर के हृदय को फाड़ता हुआ एक जंगी जहाज दिखाई पड़ा । मदन और मृणालिनी, दोनों ही, स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखते रहे । जहाज अपनी जगह पर ठहरा और इधर पोर्ट-संरक्षक ने उस पर से सैनिकों के उतरने के लिये यथोचित प्रबन्ध किया ।

समुद्र की गम्भीरता, सन्ध्या की निस्तब्धता और बैड के सुरीले राग ने दोनों के हृदयों को सम्मोहित कर लिया, और वे इन्हीं सब बातों की चर्चा करने लग गये।

मदन ने कहा--मृणालिनी, यह बाजा कैसा सुरीला है !

मृणालिनी का ध्यान टूटा । सहसा उसके मुख से निकला--तुम्हारे कल-कण्ठ से अधिक नहीं है।

इसी तरह दिन बीतने लगा । मदन को कुछ काम नहीं करना पड़ता था । जब-कभी उसका जी चाहता, तब वह महासागर के तक पर जाकर प्रकृति की सुषमा को निरखता और उसी में आनन्दित होता था । वह प्रायः गोता लगाकर मोती निकालनेवालों की‌ ओर देखा करता और मन-ही-मन उनकी प्रशंसा किया करता था।

मदन का मालिक भी उसको कभी कोई काम करने के लिये आज्ञा नहीं देता था। वह उसे बैठा देखकर मृणालिनी के साथ घूमने के लिए जाने की आज्ञा देता था। उसका स्वभाव ही ऐसा सरल था कि सभी सहवासी उससे प्रसन्न रहते थे, वह भी उनसे