खूब हिल-मिलकर रहता था।
संसार भी बड़ा प्रपंचमय यंत्र है। वह अपनी मनोहरता पर आप ही मुग्ध रहता है ।
एक एकान्त कमरे मे बैठे हुए मृणालिनी और मदन ताश खेल रहे है। दोनों जी-जान से अपने-अपने जीतने की कोशिश कर रहे है।
इतने ही में सहसा अमरनाथ बाबू उस कोठरी में आये। उनके मुख-मण्डल पर क्रोध झलकता था। वह आते ही बोले---क्यों रे दृष्ट!तू बालिका को फुसला रहा है ?
मदन तो सुनकर सन्नाटे में आ गया ! उसने नम्रता के साथ खड़े होकर पूछा---क्यों पिता, मैने क्या किया है ?
अमरनाथ--अभी पूछता ही है ! तू इस लड़की को बहँका कर अपने साथ लेकर दूसरी जगह भागना चाहता है ?
मदन--बाबूजी, यह आप क्या कह रहे है ? मुझपर आप इतना अविश्वास कर रहे है ? किसी दुष्ट ने आपसे झूठी बात कही है।
अमरनाथ---अच्छा, तुम यहां से चलो और अब से तुम दूसरी कोठरी में रहा करो। मृणालिनी को और तुमको अगर हम एक जगह अब देख पावेंगे, तो समझ रक्खो--समुद्र के गर्भ में ही तुमको स्थान मिलेगा।
मदन, अमरनाथ बाबू के पीछे, चला। मुणालिनी मुरझा गयी,मदन के ऊपर अपवाद लगाना उसके सुकुमार हृदय से सहा नहीं गया। वह नव-कुसुमित पददलित आश्रय-विहीन माधवी-लता के समान पृथ्वी पर गिर पड़ी और लोट-लोटकर रोने लगी।
मृणालिनी ने दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया और वहीं