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मदन-मृणालिनी
 


भी अपने यहां कभी-कभी उन लोगों को निमंत्रित करता है ।संसार की दृष्टि में वह बहुत सुखी था, यहां तक कि बहुत लोग उससे डाह करने लगे । सचमुच संसार बड़ा आडम्बर-प्रिय है !


मदन सब प्रकार से शारीरिक सुख भोग करता था, पर उसके चित्त-पट पर किसी रमणी की मलिन छाया निरन्तर अंकित रहती थी, जो उसे कभी-कभी बहुत कष्ट पहुँचाती थी। प्रायः वह उसे विस्मृति के जल से धो डालना चाहता था । यद्यपि वह चित्र किसी साधारण कारीगर का अंकित किया हुआ नहीं था कि एकदम लुप्त हो जाय, तथापि वह बराबर उसे मिटा डालने की ही चेष्टा करता था।

अकस्मात् एक दिन, जब सूर्य की किरणे सुवर्ण-सी सु-वर्ण-आभा धारण किये हुई थीं, नदी का जल मौज में बह रहा था, उस समय मदन किनारे खड़ा हुआ स्थिर भाव से नदी की शोभा निहार रहा था।उसको वहां कई-एक सुसज्जित जल-यान देख पड़े। उसका चित्त, न जाने क्यों, उत्कण्ठित हुआ। अनुसन्धान करने पर पता लगा कि वहां वार्षिक जल-विहार का उत्सव होता है, उसी में लोग जा रहे है।

मदन के चित्त में भी उत्सव देखने की आकांक्षा हुई। वह भी अपनी नाव पर चढ़कर उसी ओर चला। कल्लोलिनी की कल्लोलों में हिलती हुई वह छोटी-सी सुसज्जित तरी चल दी।

मदन उस स्थान पर पहुंचा, जहां नावों का जमाव था । सैकड़ों बजरे और नौकाएँ अपने नीले-पीले, हरे-लाल निशान उड़ाती हुई इधर-उधर घूम रही है। उन पर बैठे हुए मित्र लोग आपस में आमोद-प्रमोद कर रहे है। कामिनियां अपने मणिमय अलंकारों की प्रभा से उस उत्सव को आलोकमय किये हुई है।